Tuesday, August 12, 2014
Saturday, July 19, 2014
बेचारा बचपन...
कल फिर से वही सोमवार, नौकरी पे जाना, भागा-दौड़ी!! सबकुछ देखती हूँ मैं अपनी आँखो से! मुझे जल्दी जल्दी तैयार करना, मेरे extra कपड़े बैग में डालना, सब कुछ इधर का उधर होना! अब तो शायद मुझे भी पता है Monday का मतलब, कि कब वो आता है! मम्मी पापा के काम करने के तरीके से ही पता चल जाता है कि कौन सा दिन है!
अब मैं भी urbanized बेबी हो गई हूँ! Saturday-Sunday बेबी! मम्मी-पापा की बहुत सारे दिन छुट्टी होनी चाहिए, ताकि वो मेरे साथ रहें! पिछला साल अच्छा था, मेरे दादा-दादी और चाचा-चाची भी साथ थे, तो मुझे सबका प्यार मिलता था! कोई ना कोई मेरे साथ घर पर ज़रूर होता था! जो मेरी देखभाल करता था, मुझे प्यार करता था, मेरे साथ खेलता था! और मुझे सबसे अच्छे मेरे दादा-दादी लगते थे, शायद बचपन और बुढ़ापा एक दूसरे के सबसे करीब होते हैं! दोनो एक जैसे लगभग! दोनो को लोगों की ज़रूरत पड़ती है, दोनो अकेलापन महसूस करते हैं, दोनो को सहारा चाहिए, इसीलिए शायद दोनो एक दूसरे का सबसे बड़ा सहारा होते हैं!
इस साल हम दूसरे घर में शिफ्ट हो गये हैं! अब हम nucleous और independent family हैं! पर इस बीच सबसे बड़ा नुकसान मेरा हुआ है! मुझे अभी nucleous family का part नहीं बनना था, वो मेरे लिए सही नहीं था! मैं तो सबके साथ ही खुश थी! मुझे जल्दी नहीं थी इस independence की! मुझे अभी सबके साथ की ज़रूरत थी! अब मेरी Family Saturday और Sunday में सिमट के रह गई है! 5 दिन मेरा घर एक cruch होता है! थोड़े दिन तो बुरा लगा, पर अब ठीक लगने लगा है! अब मैने भी औरों की तरहा रहना सिख लिया है! यहाँ मैं अपने जैसी अकेली नहीं हूँ! बहुत सारे independent parents के independent बच्चे आते हैं यहाँ पर, अपना टाइम काटने, ताकि उनके parents इस शहर का बोझ उठा सकें, urbanization की definition पर खरा उतर सकें, cars maintain कर सकें, अच्छा घर खरीद सकें! और ये सब मेरे लिए, ऐसा कहते हुए सुना है मैने parents को! पर मैं तो होती ही नहीं हूँ उनके पास, मैं तो cruch में होती हूँ! और मैने तो ये सब माँगा भी नहीं था, ये तो उन्होने बस सोच लिया है! मुझे तो अपनी family और उनका support चाहिए! पापा सुबहा जाके शाम को आयें, या मम्मी, या दादा-दादी और चाचा-चाची साथ रहें, पर कोई तो हो! अभी तो family भी नहीं रहती मेरे पास और जिन चीज़ों के लिए मेरे मम्मी पापा सुबहा से निकल के शाम को वापस आते हैं, वो चीज़ें तो मुझे चाहिए ही नहीं!
जैसे बूढ़े लोगों के लिए आश्रम होता है, हम बच्चों के लिए भी modern आश्रम हैं, cruch आश्रम! जहाँ बहुत सारे बच्चे अपने parents के बिना पूरा दिन बिताते हैं! अपने बड़े होने का और Saturday-Sunday का wait करते हैं! फिर जब थोड़ा टाइम निकल जाएगा, तो हम सब स्कूल जाने लगेंगे! फिर 5-6 घंटे वैसे ही टाइम नहीं मिलेगा! और हमारे मम्मी पापा को भी पता नहीं चलेगा जब समय पंख लगा के उड़ जाएगा, और हम लोग कब बड़े हो जाएँगे, और अपनी अपनी ज़िंदगी में मसरूफ़ हो जाएँगे!
मैं हूँ महक, 2 साल की बच्ची! यही है हम सबके बेचारे बचपन की कहानी! काश लोग ये समझ पाते कि कुछ चीज़ें सब चीज़ों से ज़्यादा अहेमियत रखती हैं, जैसे की हमारा बचपन, एक परिवार! और कुछ भी करके समय को वापस नहीं लाया जा सकता! जो पल बीत चुका है, वो किसी भी कीमत पर वापस नहीं आएगा! और ना ही मेरा बचपन! काश मैं समझा पाती अपनी आँखो से, अपने इशारों से, कि मेरे लिए, हम सब बच्चों के लिए एक परिवार के क्या मायने हैं, मुझे और मेरे जैसे बच्चों को क्यों भरना पड़े ये जुर्माना ना साथ रहने का, nucleous होने का, independent होने का! काश लोग ये समझ जायें कि मेरा बचपन उनकी सभी समस्याओं और इच्छाओं में से सबसे important है, और मुझे इसे जीना है, इसे enjoy करना है, इसका एक एक पल मेरे लिए और मेरे सारे परिवार के लिए बहुत ज़रूरी है!!!
Monday, June 23, 2014
एक कहानी छोटी सी...
पिछली रात काफ़ी मुश्किल भरी थी रामकिसन के लिए! पूरे दिन का थका हारा जब घर पहुँचा शाम को, तो देखा कि खाने में बाजरे की रोटी के साथ कुछ ना था! काकी ने सुबहा याद दिलाया तो था कि लौटते समय बनिए से थोड़ा गुड और ज्वार का आटा लेते आना, पर बनिया भी तो घाघ था! अभी 10 दिन पहले ही पूरे पैसे चुकाए थे, पर अब बोलता है कि 10 दिन में उधार काफ़ी बढ़ गया है, और ना देगा! 3 बच्चों का खर्चा, काकी की दवाई, फिर खुद के लिए ताड़ी भी लेनी होती है रोज़, नींद आने के लिए! ख़ैर, बनिए की गालियों के साथ बाजरे की रोटी तो निगल ली, पर निगोडा पेट उनको पचाने के लिए तैयार ना था! गालियों की आदत तो थी रामू के शरीर को, पर रोटी के साथ नहीं, थप्पड़ और पिटाई के साथ! जब शरीर में दर्द बर्दाश्त करने के लिए माँस नहीं बचता तो शायद दर्द होना भी बंद हो जाता है! जब से रामकिसन की बीवी गयी थी, शरीर पर तेल लगाने के लिए भी कोई ना बचा था! काकी खुद आँखों में सवाल लिए घूमती थी कि कोई उसके बुढ़ापे में थोड़ी सेवा कर दे! बच्चे अभी इतने बड़े ना थे कि रामकिसन की थकान का मरहम बनते, और खुद रामकिसन को भी उनसे कुछ कहते ना बनता था! खुद की गरज के लिए बचपन को मारना उसे अभी तक क़ुबूल ना हो पाया था!
खैर, किसी तरहा सुबा हुई, उम्मीद जगी कि आज तो कुछ अच्छा होगा ही! आज शायद थोड़े पैसे मिल जायें ठेकेदार से! सुबा होना ऐसा ही होता है, हर किसी के लिए! पौ फट्ते ही उम्मीद उठ जाती है अंगड़ाई लेते हुए! पंख ऐसे फैला लेती है कि पूरा आसमान समेटना हो जैसे!
2 बच्चे अपने फटे हुए कपड़ों में गली में निकल चुके थे, अपना दिन काटने! एक अभी थोड़ा छोटा था, उसे काकी घर में ही रखती थी! चूल्हा चोका करने के बाद अपने उपर लिटा लेती थी! बच्चे का तो पता नहीं, काकी को ज़रूर आराम मिलता था! थोड़ी अफ़ीम चाटने के बाद 4-5 घंटे आराम से निकल जाते थे काकी के बच्चे के साथ! वो तो दो निक्कंमे थोड़े बड़े हो गये थे, दिन में दो बार तो आके खाना माँग ही लेते थे! काकी को भेदना भी आसान ना था! चेहरे की झुर्रियाँ साफ पता देती थी की ऐसे जाने कितने बच्चों को काकी ने पानी में उतार के सूखा रखा था! ऐसे बच्चों कि उम्मीदों को चबा चबा के ही शायद काकी के दाँत जल्दी टूट चुके थे! बच्चे दिन के खाने के लिए आवाज़ लगा लगा के थक जाते थे, काकी टस से मस ना होती, आँख ही ना खोलती थी! शायद काकी तपा रही थी बच्चों को! उसे पता था कि अगर अभी से 3 समय खाने की आदत डाली तो आगे कम ही जी पाएँगे ये लोग! आज बच्चों का भूखे रोना उनके 15 साल बाद जीने और झेलने का सहारा बनेगा, ये काकी को अच्छे से पता था!
शाम होते होते उम्मीद जो सुबा उठी थी, अपने पूरे ज़ोर पर आ जाती है! घर जाना है, रास्ते से बानिए से गुड और ज्वार का आटा लेना है, फिर अपने लिए भी ताड़ी लेनी है! आधी ककड़ी भी कहीं से हाथ आ जाए तो शायद भगवान पर और पक्का हो जाए विश्वास. पर जब तक घर जाने के लिए कदम रास्ते को छूते हैं, तो उमीद भी सिमट के अपने घोंसले में छिप जाती है! आज फिर ठेकेदार से दो झापड़ और एक लात खा के ये तो समझ आ गया था रामू को कि आज फिर सुखी रोटी निगल के सोना पड़ेगा! भला हो जिसने ताड़ी बना दी, कम से कम एक पहर तो सुलाए रखेगी!
फिर से बाजरे की सुखी रोटी खा के रामू लेट गया, अगली सुबा के इंतज़ार में! नींद अभी रास्ता पार करके शायद आने वाली थी! इतनी देर में काम के नाम पे छप्पर को ताकने के अलावा और कुछ था नहीं! कुछ जगह से फूउस हट गया था, उपर थोड़ा थोडा आसमान दिख रहा था, जैसे रामकिसन के मन में झाँकने कि कोशिश कर रहा हो! कल अगर थोड़े पैसे मिल जायें, तो छप्पर की मरम्मत का इंतज़ाम करूँ, थोड़े दिनों में यही आसमान बादलों को ले आएगा अपने साथ घुमाने! निगोडे को जगह भी वही पसंद आती है बरसने के लिए जहाँ से छप्पर खराब हो चुके हों और पानी घर के अंदर तक चले! यही सब सोचते हुए आख़िर थोड़ी देर के लिए रामकिसन फिर से सपने लेने लगा! ठेकेदार, गुड, ज्वार का आटा, छप्पर, बच्चे, ताड़ी, काकी, बनिया, सब सैर कर रहे थे...
खैर, किसी तरहा सुबा हुई, उम्मीद जगी कि आज तो कुछ अच्छा होगा ही! आज शायद थोड़े पैसे मिल जायें ठेकेदार से! सुबा होना ऐसा ही होता है, हर किसी के लिए! पौ फट्ते ही उम्मीद उठ जाती है अंगड़ाई लेते हुए! पंख ऐसे फैला लेती है कि पूरा आसमान समेटना हो जैसे!
2 बच्चे अपने फटे हुए कपड़ों में गली में निकल चुके थे, अपना दिन काटने! एक अभी थोड़ा छोटा था, उसे काकी घर में ही रखती थी! चूल्हा चोका करने के बाद अपने उपर लिटा लेती थी! बच्चे का तो पता नहीं, काकी को ज़रूर आराम मिलता था! थोड़ी अफ़ीम चाटने के बाद 4-5 घंटे आराम से निकल जाते थे काकी के बच्चे के साथ! वो तो दो निक्कंमे थोड़े बड़े हो गये थे, दिन में दो बार तो आके खाना माँग ही लेते थे! काकी को भेदना भी आसान ना था! चेहरे की झुर्रियाँ साफ पता देती थी की ऐसे जाने कितने बच्चों को काकी ने पानी में उतार के सूखा रखा था! ऐसे बच्चों कि उम्मीदों को चबा चबा के ही शायद काकी के दाँत जल्दी टूट चुके थे! बच्चे दिन के खाने के लिए आवाज़ लगा लगा के थक जाते थे, काकी टस से मस ना होती, आँख ही ना खोलती थी! शायद काकी तपा रही थी बच्चों को! उसे पता था कि अगर अभी से 3 समय खाने की आदत डाली तो आगे कम ही जी पाएँगे ये लोग! आज बच्चों का भूखे रोना उनके 15 साल बाद जीने और झेलने का सहारा बनेगा, ये काकी को अच्छे से पता था!
शाम होते होते उम्मीद जो सुबा उठी थी, अपने पूरे ज़ोर पर आ जाती है! घर जाना है, रास्ते से बानिए से गुड और ज्वार का आटा लेना है, फिर अपने लिए भी ताड़ी लेनी है! आधी ककड़ी भी कहीं से हाथ आ जाए तो शायद भगवान पर और पक्का हो जाए विश्वास. पर जब तक घर जाने के लिए कदम रास्ते को छूते हैं, तो उमीद भी सिमट के अपने घोंसले में छिप जाती है! आज फिर ठेकेदार से दो झापड़ और एक लात खा के ये तो समझ आ गया था रामू को कि आज फिर सुखी रोटी निगल के सोना पड़ेगा! भला हो जिसने ताड़ी बना दी, कम से कम एक पहर तो सुलाए रखेगी!
फिर से बाजरे की सुखी रोटी खा के रामू लेट गया, अगली सुबा के इंतज़ार में! नींद अभी रास्ता पार करके शायद आने वाली थी! इतनी देर में काम के नाम पे छप्पर को ताकने के अलावा और कुछ था नहीं! कुछ जगह से फूउस हट गया था, उपर थोड़ा थोडा आसमान दिख रहा था, जैसे रामकिसन के मन में झाँकने कि कोशिश कर रहा हो! कल अगर थोड़े पैसे मिल जायें, तो छप्पर की मरम्मत का इंतज़ाम करूँ, थोड़े दिनों में यही आसमान बादलों को ले आएगा अपने साथ घुमाने! निगोडे को जगह भी वही पसंद आती है बरसने के लिए जहाँ से छप्पर खराब हो चुके हों और पानी घर के अंदर तक चले! यही सब सोचते हुए आख़िर थोड़ी देर के लिए रामकिसन फिर से सपने लेने लगा! ठेकेदार, गुड, ज्वार का आटा, छप्पर, बच्चे, ताड़ी, काकी, बनिया, सब सैर कर रहे थे...
Sunday, June 22, 2014
Just wrote
Half of the time in my life I travelled, and than I thought why I travelled when there was no place to reach! And then I see in the end, I was no where! What I learned is, to travel was not required at all! Everything was there already where I was! Alas, I lost so much!
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