कोई अत्यधिक महत्वपुर्ण बात नही है अभी कहने या बताने के लिऎ, बस ऐसे ही ताना-बाना बुनने की कोशिश की है जो कुछ भी अभी चेतन-अव्चेतन मन मे चल रहा है! कुछ बाते जो कभी सोच कर दुखः प्रकट कर लेता हू, कभी किन्ही विचारो मे डूब कर अपना रास्ता भूल जाता हू! बात माने तो कुछ भी ना-पते की होते हुए पते की है, और नही है तो शायद कुछ भी नही है! फ़ैसला अपना-अपना सुरक्षित है!
सन्स्कार और संस्कृति
कल राह मे चलते-चलते ऐसे ही रेडिओ पर ये शब्द सुने! यही दो शब्द जिसमे लगता है कि सारा पारिवारिक, सामाजिक और धरा का मुल सुख चिपा हुआ है! यही दो शब्द है जिन्हे सुनते और समझते हुए इन्सान ने कितने ही रिश्तो, कितने ही नातो, और कितनी ही भवनाओ को ना जाने कितनी ही बार ताक पे रखा है और कितनी ही बार कत्ल किया है! कुछ थेकेदारो ने तो संस्कृति के नाम पे एक नया अध्याय भी शुरु किया हुआ है, जो इतना प्रचलित हुआ कि एक फ़िल्म भी बनी उसपे... "honour killing" ... उस सभ्यता और संस्कृति के नाम पे कत्ल जिसे ना तो इनमे से किसी ठेकेदार ने बनाया है, और ना ही खुद कभी परिपक्व और समझदार होके पालन ही किया है!
अब "honour killing" मे नया इज़ाफ़ा हुआ है समय के साथ-साथ, "emotional killing". ये शायद इस "honour killing" का ही एक्स्टेन्डॆड वर्ज़ेन है, परन्तु देखने मे आया है कि इसका रुप "honour killing" से भी अधिक खतरनाक ऒर विभत्स है! "honour killing" मे किसी को एक बार मार दिया जाता है, परन्तु इसके एक्स्टेन्डॆड वर्ज़ेन मे तिल-तिल कर मारने का प्रचलन है!
बात करते है कुछ इमानदारी की. कि या तो आपको किसी भी तरीके से इमानदार होने नही दिया जायेगा, और अगर हुए तो इमानदार रहने नही दिये जाने की एक अनोखी अनजानी सी पवीत्र कसम से बिना कुछ बोले जकड दिया जाएगा! बहुत छोटी सी बात को समझने के लिये जो आडम्बर और स्वान्ग रचे जाते है, कोई ही विरला उस पीडा से मेहरुम रहा हो!
"emotional killing" मे एक बात और जो सामने आती है, वो है किसी अपने प्रिये की बिमारी! टेन्श्न से माइग्रएन, वोमिट, हर्ट पेन, नीन्द ना आना, बुरे स्वपन इत्यादि का आजकल बहुत चलन है! और इन सबके उपरान्त भी अपनी बात को मनवाने के लिये खाना ना खाने का भी अत्यधिक उपयोग किया जा रहा है! मुद्दे कि बात ये कि ये पुराने तरीके इतने पुख्ता और मज़बूत है कि आज भी कामगार सिध है! ऒल्ड ईज़ गोल्ड!
अगर थोडा ध्यान से अध्यन्न किया जाये और समझने कि कोशिश ना सही, बस सोचा जाये समझने के बारे मे, तो बात इतनी कठिन भी नही है, बस रिश्तो की बुनियादे गलत पड चुकी है शायद. थोडी सी मेहनत और समझदारी से अगर काम लिया जाये, तो बात बन सकती है. परन्तु कुछ दुर्भाग्यवश काफी लोगो के लिये देर हो चुकी होती है! और उसपे सुहागा ये कि भुक्त्भोगी भी इसी बात पर यकीन करना शुरु कर देता है कि शायाद सुबहो कि किरण अभी बहुत दूर है!
खाफ़ी खानापुर्ति के बाद नतीजा मुझे तो हरिवन्श राय बच्चन जी कि एक कविता कि और ले जाता है जिसका एक छःन्द नीचे प्रस्तुत है! (आशा है कि अमिताभ जी नाराज़ नही होन्गे, उन्हे पसन्द नही है कि कोई भी ऐसे ही अपने लेख को आकर्षित बनाने के लिये हरिवन्श जी की कविताओ का प्रयोग करे! और मै भी उनसे इस बात पे पुरी सहमति रखता हू. परन्तु अपनी पहली कोशिश की शुरुआत तो मै फ़िर भी उनकी एक कविता के छ्न्द से ही करना चाहूगा)
मैं छिपाना जानता तो
जग मुझे साधु समझता,
शत्रु मेरा बन गया है
छल रहित व्यवहार मेरा
सन्स्कार और संस्कृति पे और भी बहुत कुछ है चर्चा करने के लिये, अगर शेष नही रखा, तो ज़्यादा रहेगा नही लिखने के लिए!
शुभ