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Saturday, July 19, 2014

बेचारा बचपन...

कल फिर से वही सोमवार, नौकरी पे जाना, भागा-दौड़ी!! सबकुछ देखती हूँ मैं अपनी आँखो से! मुझे जल्दी जल्दी तैयार करना, मेरे extra कपड़े बैग में डालना, सब कुछ इधर का उधर होना! अब तो शायद मुझे भी पता है Monday का मतलब, कि कब वो आता है! मम्मी पापा के काम करने के तरीके से ही पता चल जाता है कि कौन सा दिन है!
 
अब मैं भी urbanized बेबी हो गई हूँ! Saturday-Sunday बेबी! मम्मी-पापा की बहुत सारे दिन छुट्टी होनी चाहिए, ताकि वो मेरे साथ रहें! पिछला साल अच्छा था, मेरे दादा-दादी और चाचा-चाची भी साथ थे, तो मुझे सबका प्यार मिलता था! कोई ना कोई मेरे साथ घर पर ज़रूर होता था! जो मेरी देखभाल करता था, मुझे प्यार करता था, मेरे साथ खेलता था! और मुझे सबसे अच्छे मेरे दादा-दादी लगते थे, शायद बचपन और बुढ़ापा एक दूसरे के सबसे करीब होते हैं! दोनो एक जैसे लगभग! दोनो को लोगों की ज़रूरत पड़ती है, दोनो अकेलापन महसूस करते हैं, दोनो को सहारा चाहिए, इसीलिए शायद दोनो एक दूसरे का सबसे बड़ा सहारा होते हैं!
 
इस साल हम दूसरे घर में शिफ्ट हो गये हैं! अब हम nucleous और independent family हैं! पर इस बीच सबसे बड़ा नुकसान मेरा हुआ है! मुझे अभी nucleous family का part नहीं बनना था, वो मेरे लिए सही नहीं था! मैं तो सबके साथ ही खुश थी! मुझे जल्दी नहीं थी इस independence की! मुझे अभी सबके साथ की ज़रूरत थी! अब मेरी Family Saturday और Sunday में सिमट के रह गई है! 5 दिन मेरा घर एक cruch होता है! थोड़े दिन तो बुरा लगा, पर अब ठीक लगने लगा है! अब मैने भी औरों की तरहा रहना सिख लिया है! यहाँ मैं अपने जैसी अकेली नहीं हूँ! बहुत सारे independent parents के independent बच्चे आते हैं यहाँ पर, अपना टाइम काटने, ताकि उनके parents इस शहर का बोझ उठा सकें, urbanization की definition पर खरा उतर सकें, cars maintain कर सकें, अच्छा घर खरीद सकें! और ये सब मेरे लिए, ऐसा कहते हुए सुना है मैने parents को! पर मैं तो होती ही नहीं हूँ उनके पास, मैं तो cruch में होती हूँ! और मैने तो ये सब माँगा भी नहीं था, ये तो उन्होने बस सोच लिया है! मुझे तो अपनी family और उनका support चाहिए! पापा सुबहा जाके शाम को आयें, या मम्मी, या दादा-दादी और चाचा-चाची साथ रहें, पर कोई तो हो! अभी तो family भी नहीं रहती मेरे पास और जिन चीज़ों के लिए मेरे मम्मी पापा सुबहा से निकल के शाम को वापस आते हैं, वो चीज़ें तो मुझे चाहिए ही नहीं!
 
जैसे बूढ़े लोगों के लिए आश्रम होता है, हम बच्चों के लिए भी modern आश्रम हैं, cruch आश्रम! जहाँ बहुत सारे बच्चे अपने parents के बिना पूरा दिन बिताते हैं! अपने बड़े होने का और Saturday-Sunday का wait करते हैं! फिर जब थोड़ा टाइम निकल जाएगा, तो हम सब स्कूल जाने लगेंगे! फिर 5-6 घंटे वैसे ही टाइम नहीं मिलेगा! और हमारे मम्मी पापा को भी पता नहीं चलेगा जब समय पंख लगा के उड़ जाएगा, और हम लोग कब बड़े हो जाएँगे, और अपनी अपनी ज़िंदगी में मसरूफ़ हो जाएँगे!
 
मैं हूँ महक, 2 साल की बच्ची! यही है हम सबके बेचारे बचपन की कहानी! काश लोग ये समझ पाते कि कुछ चीज़ें सब चीज़ों से ज़्यादा अहेमियत रखती हैं, जैसे की हमारा बचपन, एक परिवार! और कुछ भी करके समय को वापस नहीं लाया जा सकता! जो पल बीत चुका है, वो किसी भी कीमत पर वापस नहीं आएगा! और ना ही मेरा बचपन! काश मैं समझा पाती अपनी आँखो से, अपने इशारों से, कि मेरे लिए, हम सब बच्चों के लिए एक परिवार के क्या मायने हैं, मुझे और मेरे जैसे बच्चों को क्यों भरना पड़े ये जुर्माना ना साथ रहने का, nucleous होने का, independent होने का! काश लोग ये समझ जायें कि मेरा बचपन उनकी सभी समस्याओं और इच्छाओं में से सबसे important है, और मुझे इसे जीना है, इसे enjoy करना है, इसका एक एक पल मेरे लिए और मेरे सारे परिवार के लिए बहुत ज़रूरी है!!!

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